सुकूं जहाँ में किसके हिस्से आया?
न अमीर के हिस्से आया, न गरीब के हिस्से आया ।
अमीर महरूम हैं सुकूं से, खो देने के डर से तख्तो-ताज,
गरीब कुछ न होने की मायूसी मे सुकूं से हैं मोहताज ।
जिन्हें ये तोहफा मिला, उनके सितारें जरूरी तो नही थे गर्दिश में,
फर्क सिर्फ इतना कि सुकूं ढूंढ लिया उन्होंने हर अधूरी ख्वाहिश में ।
जिस सुबह के इंतज़ार में, शब भर मैं जागता रहा,
बेचैन रहा, उदास रहा, मन बस युं ही भागता रहा ।
वो सुबह तो कभी आई नही, जिसे मैंने समझा आशना,
फकत ये शब ही थी मेरे पास, सुकूं इसी में था मुझे तलाशना ।
उनके कुछ हर्फ़ काफी थे, मेरी दास्तां बयां न कर सकें सैंकड़ों अल्फाज़ ।
उन्हे भूल जाने में ही सुकूं हैं, दफ़्न कर दिये थे जो राज़ ।
जो आया मंजूर किया और दिल का कहना मान लिया,
सुकूं अपना तो न हुआ पर थोड़ा उसको जान लिया ।
मुकम्मल कर लो उसे, जो थोड़ी सी ये दूरी हैं,
सुकूं पहचान लो, सहेज लो, तो ये तलाश पूरी हैं ।
कई सितम हैं अब भी पर हौंसला भी बडा़ है,
अगले मोङ पे बाहें फैलाए शायद सुकूं ही खड़ा हैं ।
© विशाल मेहरा 2015
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